सरकार की ई-बस योजना कुछ मुश्किलों का सामना कर रही है। शहरों में इलेक्ट्रिक बसें बढ़ाने के लिए सरकार ने कई लक्ष्य तय किए हैं, लेकिन बड़े व्यवसाय (OEM) इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, बड़े वाहन निर्माता अक्सर हिचकते हैं क्योंकि शुरुआत में खर्चा ज्यादा होता है, लंबे समय में लाभ का अंदाजा मुश्किल होता है और नियमों का पालन जटिल होता है।
नई टेंडर में प्रतिस्पर्धा कम होने से अधिकारियों को समय बढ़ाना पड़ रहा है और मंजूरी में देरी हो रही है। इससे नई ई-बसें सार्वजनिक परिवहन में जल्दी नहीं आ पाती और पुराने डीज़ल बसों को हटाना मुश्किल हो जाता है। अधिकारी कहते हैं कि सख्त टेंडर शर्तें और कड़ी खरीद प्रक्रिया भी व्यवसायों को भाग लेने से रोकती हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि केवल सरकारी सब्सिडी पर्याप्त नहीं होती। बेहतर होगा कि फंडिंग, कर छूट और सरल नियमों को मिलाकर टेंडर को आकर्षक बनाया जाए। सार्वजनिक-निजी साझेदारी से व्यवसायों को भरोसा मिलेगा और वे लंबे समय तक ई-बस योजना में निवेश करने को तैयार होंगे।
बड़े व्यवसायों की धीमी प्रतिक्रिया शहरों के प्रदूषण घटाने के लक्ष्य को भी प्रभावित करती है। विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि लचीले टेंडर, चरणबद्ध अनुबंध और खरीद की गारंटी से व्यवसाय ज्यादा सक्रिय हो सकते हैं।
सरकार अभी भी इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को प्राथमिकता देती है, लेकिन चुनौती यह है कि महत्वाकांक्षी लक्ष्य और वास्तविक भागीदारी को कैसे संतुलित किया जाए। व्यवसायों को उचित प्रोत्साहन देकर, शहरों में बसों को इलेक्ट्रिक बनाने, सार्वजनिक परिवहन को बेहतर करने और सतत विकास को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।
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