भारत में अगस्त महीने में ट्रक किराया दरों में फिर गिरावट देखी गई। यह गिरावट 3-4% रही, ठीक वैसे ही जैसे जुलाई में हुई थी। वजह साफ है—अमेरिका ने भारतीय आयात पर 50% शुल्क लगा दिया है। यदि यह शुल्क एक महीने और जारी रहा, तो जानकारों का मानना है कि हालात 1998 की एशियाई मंदी जैसे हो सकते हैं।
सबसे ज्यादा असर बड़े मार्गों पर दिख रहा है:
सब्जियाँ जैसे आलू, प्याज और टमाटर कम मात्रा में बाजारों में पहुँच रही हैं। शहरों की कृषि उपज मंडियों में आवक घटी है। त्योहारों से पहले जो टिकाऊ उपभोक्ता सामान और बिजली से जुड़े सामान तेजी से बिकते थे, उनकी ढुलाई भी धीमी हो गई है। ट्रक मालिकों के अनुसार माल की लोडिंग 8-10% तक कम हुई है।
भारी बारिश ने परिवहन को और बिगाड़ दिया है। सड़कों पर पानी भरने और राजमार्गों को नुकसान होने से ट्रकों को देर हो रही है। खर्च भी बढ़ रहे हैं—टायर जल्दी खराब हो रहे हैं और हर यात्रा में डीजल की खपत बढ़ रही है।
अब बेड़े (फ्लीट) के मालिक लंबे समय के अनुबंध कर रहे हैं। ऐसे समझौते 3 से 5 साल तक चलते हैं। इससे आमदनी तो स्थिर रहती है लेकिन मुनाफा कम हो जाता है। इस तरीके से कर (टैक्स) में भी राहत मिलती है क्योंकि वित्तीय वर्ष के पहले हिस्से में 40% तक मूल्यह्रास की छूट मिलती है।
ट्रकों की खरीद लगभग रुक गई है। डीलर अपने पास 30 से 40 दिन तक गाड़ियाँ बिना बिके रखे हुए हैं। बैंक और गैर–बैंक वित्तीय कंपनियाँ 8-9% ब्याज पर ऋण दे रही हैं, लेकिन नए वाहन लेने वाले बहुत कम हैं। किस्तें न भर पाने की घटनाएँ बढ़ रही हैं और वाहन जब्ती भी खासकर उत्तर और पूर्वी भारत में तेज हो गई है।
ट्रक उद्योग को सरकार से राहत की उम्मीद है। दिवाली से पहले जीएसटी में कमी और 12 लाख रुपये तक की आयकर छूट का वादा किया गया है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय हालात ज्यादा भारी पड़ रहे हैं। अमेरिका के शुल्क और यूरोप संघ द्वारा रूस के तेल पर संभावित रोक यह तय करेंगे कि व्यवसाय वाहन की मांग कब सुधरेगी।
भारत में ट्रक तो चल रहे हैं, लेकिन माल कम और मुनाफा भी घटा हुआ है। जब तक शुल्क कम नहीं होंगे और मांग नहीं बढ़ेगी, तब तक ट्रक उद्योग के लिए यह दौर बीते कई दशकों में सबसे कठिन रह सकता है।
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