सोचिए, आप शहर की बस में चढ़ें और वहाँ कोई ड्राइवर न हो। बस अपने आप ट्रैफिक में आराम से चले, सही जगह रुक जाए, रुकावटों से निपट ले और बिना किसी परेशानी के आपको गंतव्य तक पहुँचा दे। यही वादा है खुद चलने वाली (स्वचालित) बसों का।
लेकिन हकीकत में इसे सड़कों पर लाने में तकनीकी, सामाजिक, क़ानूनी और नैतिक तरह-तरह की अड़चनें हैं।
खुद चलने वाली बस: इसके पीछे की तकनीक
यह समझने के लिए कि ये बसें आम कब होंगी, कुछ अहम तकनीकी बातें समझना ज़रूरी हैं:
- सेंसर और समझने की क्षमता: सड़क पर पैदल यात्री, साइकिल, गाड़ी, ज़ेब्रा क्रॉसिंग और अवरोध पहचानने के लिए LiDAR, कैमरे, राडार, जीपीएस जैसी चीज़ें लगाई जाती हैं। जितने अच्छे सेंसर और डाटा होंगे, बस उतनी भरोसेमंद तरीके से चलेगी।
- सॉफ़्टवेयर और निर्णय क्षमता: बस को लेन बदलना, अचानक सामने आने वाली चीज़ों से बचना, पैदल यात्री को पहचानना आदि सब कुछ सॉफ़्टवेयर और मशीन लर्निंग से संभव होता है। सुरक्षा और बैकअप सिस्टम भी ज़रूरी हैं।
- सड़क और नक्शा व्यवस्था: हाई-डेफ़िनिशन नक्शे, साफ़ लेन, भरोसेमंद ट्रैफ़िक सिग्नल और स्मार्ट सड़कें ज़रूरी हैं।
- सीमित या तय रास्ते: शुरू में ये बसें केवल कैंपस, डिपो या बीआरटी जैसी तय जगहों पर चलाई जाती हैं, ताकि स्थिति को आसान बनाया जा सके।
- सुरक्षा और नियम: टेस्ट अलग बात है, लेकिन जनता के बीच चलाने के लिए क़ानूनी ज़िम्मेदारी, बीमा, सरकारी अनुमति और जनता का भरोसा बहुत ज़रूरी है।
- लोगों का भरोसा: यात्रियों को बस पर विश्वास होना चाहिए कि ये सुरक्षित है। शुरुआती अध्ययनों में देखा गया कि लोग सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं, लेकिन तभी जब सिस्टम विश्वसनीय और पारदर्शी हो।
भारत में खुद चलने वाली बसों की मुश्किलें
भारत में मामला ज़्यादा जटिल है। सिर्फ़ यह कहना कि "इंफ्रास्ट्रक्चर खराब है" काफी नहीं, बल्कि इसके पीछे कई असली वजहें हैं:
मुख्य चुनौतियाँ
- सड़क की जटिलता और अनिश्चितता: भारत में लेन अनुशासन नहीं है, गाड़ियाँ नियम तोड़ती हैं, दोपहिया वाहन बीच में से निकल जाते हैं, अचानक जानवर या ठेलेवाले सामने आ जाते हैं, सड़कें टूटी होती हैं, संकेत साफ़ नहीं होते। ऐसी स्थिति में एआई को ट्रेन करना बहुत कठिन है।
- नियमों का पालन न होना: सिग्नल तोड़ना, इंडिकेटर न जलाना, ग़लत दिशा में गाड़ी चलाना जैसी बातें यहाँ आम हैं। स्वचालित सिस्टम के लिए यह बड़ा ख़तरा है।
- क़ानूनी ढांचा न होना: अभी तक यह तय नहीं है कि हादसे की स्थिति में ज़िम्मेदारी किसकी होगी। ऐसे में बड़ी तैनाती मुश्किल है।
- लागत: सेंसर और शक्तिशाली कंप्यूटर सिस्टम बहुत महंगे हैं। सार्वजनिक परिवहन एजेंसियों के पास सीमित बजट होता है, ऐसे में इसे आर्थिक रूप से टिकाऊ बनाना कठिन है।
- इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी: टूटी सड़कें, धुंधले या ग़ायब लेन संकेत, असमान सतहें और अचानक सड़क मरम्मत जैसी समस्याएँ बड़ी बाधा हैं।
भारत में क्या हो रहा है काम
आईआईटी हैदराबाद (TiHAN सेंटर) ने अपने कैंपस में बिना ड्राइवर वाली इलेक्ट्रिक बसें चलाई हैं। दो मॉडल (6-सीटर और 14-सीटर) चल रहे हैं, जिनसे हज़ारों यात्री सफ़र कर चुके हैं।
लेकिन ध्यान रहे, ये सिर्फ़ कैंपस जैसे नियंत्रित माहौल में चल रही हैं, न कि शहर की खुली ट्रैफ़िक वाली सड़कों पर।
नतीजा: तो क्या हमें ये बसें जल्द दिखेंगी?
- हाँ, कुछ जगहों पर: जैसे एयरपोर्ट, कैंपस, बीआरटी कॉरिडोर या तय लेन पर, जहाँ माहौल नियंत्रित और अनुमानित है। विकसित देशों में ऐसी मिनी-बसें और शटल पहले से चल रही हैं।
- नहीं, हर जगह पर नहीं: खुली और अव्यवस्थित ट्रैफ़िक वाली सड़कों पर, जहाँ नियमों का पालन कम है और सड़कें ठीक नहीं हैं, वहाँ फिलहाल मुमकिन नहीं।
भारत में आम जनता के लिए ये बसें जल्द उपलब्ध नहीं होंगी। अभी ये सीमित जगहों जैसे कैंपस या बंद ज़ोन तक ही सीमित रहेंगी। बड़े पैमाने पर लाने के लिए सड़क अनुशासन, इंफ्रास्ट्रक्चर, क़ानून, लागत, जनता का भरोसा और सुरक्षा जैसी कई चुनौतियों को हल करना होगा।
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